उस रात बहुत सन्नाटा था
उस रात बहुत खामोशी थी
साया था कोई ना सरगोशी
आहट थी ना जुम्बिश थी कोई
आँख देर तलक उस रात मगर
बस इक मकान की दूसरी मंजिल पर
इक रोशन खिड़की और इक चाँद फलक पर
इक दूजे को टिकटिकी बांधे तकते रहे
रात चाँद और मैं तीनो ही बंजारे हैं
तेरी नाम पलकों में शाम किया करते हैं
कुछ ऐसी एहतियात से निकला है चाँद फिर
जैसे अँधेरी रात में खिड़की पे आओ तुम
क्या चाँद और ज़मीन में भी कोई खिंचाव है
रात चाँद और मैं मिलते हैं तो अक्सर हम
तेरे लेहज़े में बात किया करते हैं
सितारे चाँद की कश्ती में रात लाती है
सहर में आने से पहले बिक भी जाते हैं
बहुत ही अच्छा है व्यापार इन दिनों शब का
बस इक पानी की आवाज़ लपलपाती है
की घात छोड़ के माझी तमामा जा भी चुके हैं
चलो ना चाँद की कश्ती में झील पार करें
रात चाँद और मैं अक्सर ठंडी झीलों को
डूब कर ठंडे पानी में पार किया करते हैं
-गुलज़ार
साभार
गुल-ए-गुलज़ार
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गुल-ए-गुलज़ार
चा जाते हैं दिलो दिमाग पर ...
ReplyDeleteगुलज़ार साहब एक ही हैं बस ...
बहुत बधाई आपको दीप पर्व की ...
वाह क्या सुन्दर भाव है। चलचित्र प्रस्तुत कर दिया आपने।
ReplyDeleteवाह वाह बेहद सुंदर
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