कुछ समय से
घर भर गया है
मेहमानों से.
घर ही नहीं
शरीर, मन, मस्तिष्क
चेतन, अवचेतन.
ये मात्र मेहमान नहीं
मेहमानों का कुनबा है.
सोचती हूँ
मन दृढ करती हूँ
आज पूंछ ही लूँ
अतिथि
तुम कब जाओगे
पर संस्कार रोक लेते है.
ये आते जाते रहते है
पर क्या मजाल
कि पूरा कुनबा
एक साथ चला जाये
शायद उन्हें डर है
उनकी अनुपस्थिति में
वो धरोहर जो मुझे सौंपी गई,
वो किसी और के
नाम न लिख दी जाय.
हाँ! चिंता, दुःख,
इर्ष्या, डर और
इनकी भावनाएं
मेरे मस्तिष्क में
स्थायी निवास कर रही हैं....!!
लेखक परिचय - रचना दीक्षित
सुन्दर रचना।
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