1212 1212 1212 1212
शराब जब छलक पड़ी तो मयकशी कुबूल है ।
ऐ रिन्द मैकदे को तेरी तिश्नगी कुबूल है ।
नजर झुकी झुकी सी है हया की है ये इंतिहा ।
लबों पे जुम्बिशें लिए ये बेख़ुदी कुबूल है ।।
गुनाह आंख कर न दे हटा न इस तरह नकाब ।
जवां है धड़कने मेरी ये आशिकी कबूल है ।।
यूँ रात भर निहार के भी फासले घटे नहीं ।
ऐ चाँद तेरी बज़्म की ये बेबसी कुबूल है ।।
न रूठ कर यूँ जाइए मेरी यही है इल्तिजा ।
मुझे हुजूऱ अपकी तो बेरुख़ी कुबूल है ।।
ये सुन के मुस्कुरा रहा चराग़ स्याह रात में ।
शलभ ने जब कहा यही ये रोशनी कुबूल है ।।
उसी को ज़ख्म हैं मिले उसी को हर सज़ा मिली ।
जिसे तेरे लिए जहाँ की दुश्मनी कबूल है ।।
बिना रदीफ़ बह्र के लिखी थी मैंने जो कभी ।
मेरे विसाले यार को वो शायरी कुबूल है ।।
ऐ रब जरा बता मुझे कदम कदम की मुश्किलें ।
तेरी ही ज़ुस्तजू में तेरी रहबरी कुबूल है ।।
- नवीन मणि त्रिपाठी
बढिया ग़ज़ल।
ReplyDeleteआ0 तहेदिल से बहुत बहुत शुक्रिया
Deleteबेहतरीन
ReplyDeleteआ0 तहेदिल से बहुत बहुत शुक्रिया
Deleteवाह
ReplyDeleteआ0 तहेदिल से बहुत बहुत शुक्रिया
Deleteवाह क्या बात है
ReplyDeleteआ0 तहेदिल से बहुत बहुत शुक्रिया
Deleteआ0 यशोदा जी सादर नमन के साथ आभार
ReplyDeleteरुमानियत की चाशनी में पगी बेहद सोंधी रचना ...
ReplyDeleteवाह बहुत उम्दा ग़ज़ल ।
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल
ReplyDelete