Tuesday, July 30, 2019

वृद्ध होती माँ......सुधा देवरानी

सलवटें चेहरे पे बढती ,मन मेरा सिकुड़ा रही है
वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैं।

देर रातों जागकर जो घर-बार सब सँवारती थी,
*बीणा*आते जाग जाती , नींद को दुत्कारती थी ।
शिथिल तन बिसरा सा मन है,नींद उनको भा रही है,
वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैंं ।

हौसला रखकर जिन्होंने हर मुसीबत पार कर ली ,
अपने ही दम पर हमेशा, हम सब की नैया पार कर दी ।
अब तो छोटी मुश्किलों से वे बहुत घबरा रही हैं,
वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैं ।

सुनहरे भविष्य के सपने सदा हमको दिखाती ,
टूटे -रूठे, हारे जब हम, प्यार से उत्साह जगाती ।
अतीती यादों में खोकर,आज कुछ भरमा रही हैं ,
वृद्ध होती माँ अब मन से बचपने में जा रही हैंं !!

लेखिका परिचय -  सुधा देवरानी   

17 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" मंगलवार 30जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत सुंदर रचना

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (31-07-2019) को "राह में चलते-चलते"
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. माँ को समर्पित बहुत ही सुन्दर हृदय स्पर्शी रचना
    सादर

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  5. मां का उम्र के साथ बदलता क्रिया कलाप कसक और हूक पैदा कर रहा है अंतर तक संवेदनाएं जगाती हृदय स्पर्शी रचना सुधा जी ।

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  6. दिल को छूती बहुत ही सुंदर रचना, सुधा दी।

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  7. वाह!!बहुत खूबसूरत रचना ।अंतरमन को छू गई 🙏

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  8. मर्मस्पर्शी सृजन. माँ की वृद्धावस्था से जुड़े पहलुओं का मार्मिक चित्रण माँ का स्मरण करा देने में सक्षम !माँ के सुखद एहसास को याद करते हुए
    आँखें नम करती रचना.

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  9. सुन्दर अभिव्यक्ति वृद्ध होती मां बचपने में जा रही

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  10. मनमोहक रचना
    सस्नेहाशीष पुत्तर जी

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  12. यह जीवन चक्रवत घूर्णन करता है। बालपन, युवापन, वृद्धावस्था - यह शारीरिक अवस्था की गतियाँ है, किन्तु मन तो बच्चा है जी। शरीर जब वृद्ध होने लगता है तो मन बालक। संभवतः इसी मनस तत्व को प्रारब्ध रूप में लेकर वह अगली योनि के शैशव में प्रवेश करता है। और मां तो अपने बचपन में बच्चा रहती ही है, युवावस्था में अपने जने बच्चे के साथ फिर बच्चा बन जाती है। और वृद्धावस्था में उसका यह शाश्वत संस्कार फिर सजीव हो उठता है। कोमलता, निस्वार्थता,निश्छलता,करुणा यहीं तो बालपन है जिसका बीज भी तो माँ ही बोती है। बालपन और मातृत्व एक दूसरे में समाहित हैं एक दूसरे से अविच्छिन्न हैं।
    अंतस के तारो को झंकृत करने वाली अत्यंत भाव प्रवण रचना। मन में एक साथ बालपन और माँ दोनो को जगा गयी। अत्यंत आभार और साधुवाद इस रचना का।

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  13. सुंदर भावपूर्ण रचना

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  14. सुन्दर भावपूर्ण रचना। कहा भी गया है कि वृद्धावस्था और बालावस्था कई मामलों में एक समान होते है। इसको बखूबी दर्शाया है आपने।

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  15. बहुत ही प्यारी रचना।

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