कही तुमने
बार-बार वो बातें
जिनका मेरे लिए
न कोई अर्थ है
ना ही अस्तित्व
जो मैं पढ़ना चाहूँ
तुम्हारी आँखों की
अनदेखी लिपियाँ
कहो, कौन सी कूट का
इस्तेमाल करूं !
ढूंढ रही हूँ
कोई ऐसा स्रोत
ऐसी किताब
जो नयनों की भाषा को
शब्दों में बदलती हो
है ये ईसा पूर्व की, या
सोलहवीं सदी
की सी बात
कि हमारे बीच से
शब्द अदृश्य ही रहे हैं
अब तुम पढ़ना
मेरा मौन, देखना
मेरी अनवरत प्रतीक्षा
अब मैं कूट-लिपिक बन
पढूंगी बस
आँखों की अनदेखी लिपियाँ...।
लिपि रहित है आंखों की लिपि
ReplyDeleteअद्भुत
अति उत्तम
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (20 -07-2019) को "गोरी का शृंगार" (चर्चा अंक- 3402) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteवाह बेहतरीन रचना अद्भूत।
ReplyDeleteवाह! एक पंक्ति याद आ गयी:-
ReplyDeleteआली मैं हर गयी, अंखियन के खेल में!