खड़े जहाँ पर ठूँठ
कभी वहाँ
पेड़ हुआ करते थे।
सूखी तपती
इस घाटी में कभी
झरने झरते थे।
छाया के
बैरी थे लाखों
लम्पट ठेकेदार,
मिली-भगत सब
लील गई थी
नदियाँ पानीदार।
अब है सूखी झील
कभी यहाँ
पनडुब्बा तिरते थे।
बदल गए हैं
मौसम सारे
खा-खा करके मार
धूल-बवण्डर
सिर पर ढोकर
हवा हुई बदकार
सूखे कुएँ,
बावड़ी सूखी
जहाँ पानी भरते थे।
-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
यशोदा जी , मेरी रचना खूबसूरत ढंग से यहाँ प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद ; सूचना भी दें तो अच्छा रहेगा। लिन्क और लोगों तक भी भेजा जा सकता है।- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' rdkamboj@gmail.com
ReplyDeleteआदरणीरय भैय्या जी..
Deleteसादर नमन..
ये रचना अभी 3.30 बजे प्रकाशित हुई है..
इस रचना का एक शब्द हमने साप्ताहिक विषय हेतु चुना है..पूरे सप्ताह पढ़ी जाएगी...
समसामयिक रचना है ..सोने में सोहागा कि ये आपकी कलम से प्रसवित हुई है..
आह्लादित हूँ मैं...आप मेरे ब्लाग पर आए...
स्नेह बनाए रखिएगा...
आभार
यशोदा..
बहुत सार्थक और सशक्त रचना।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ।
ReplyDeleteसामायिक चिंतन देती खरी खरी रचना।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (15-05-2019) को "आसन है अनमोल" (चर्चा अंक- 3335) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut sunder cheej apne likhi hai. Me Indian Railways me hu par apko follow karta hu
ReplyDeleteसहज और सार्थक रचना।
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