कंधे पर फटकर झूलती
मटमैली धूसर कमीज
चीकट हो चुकी
धब्बेदार नीली हाफ पैंट पहने
जूठी प्यालियों को नन्ही
मुट्ठियों में कसकर पकड़े
इस मेज से उस मेज दौड़ता
साँवले चेहरे पर चमकती
पीली आँख मटकाता
भोर पाँच बजे ही से
चाय-समोसे की दुकान पर
नन्हा दुबला मासूम सा 'छोटू'
किसी की झिड़की, किसी
का प्यार ,किसी की दया
निर्निमेष होकर सहता
पापा के साथ दुकान आये
नन्हें हम उमर बच्चों को
टुकुर;टुकुर हसरत से ताकता
मंगलवार की आधी छुट्टी में
बस्ती के बेफ्रिक्र बच्चों संग
कंचे, गिट्टू, फुटबॉल खेलता
नदी में जमकर नहाता,
बेवजह खिलखिलाता,
ठुमकता फिल्मी गाने गाता
अपने स्वाभिमानी जीवन से
खुश है या अबोधमन
बचपना भुला
वक्त की धूप सहना सीख गया
रोते-रोते गीला बचपन
सूख कर कठोर हो गया है।
सूरज के थक जाने के बाद
चंदा के संग बतियाता
बोझिल शरीर को लादकर
कालिख सनी डेगची और
खरकटे पतीलों में मुँह घुसाये
पतले सूखे हाथों से घिसता
थककर निढाल सुस्त होकर
बगल की फूस झोपड़ी में
अंधी माँ की बातें सुनता
हाथ-पैर छितराये सो जाता।
-श्वेता सिन्हा
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (02-05-2019) को " ब्लॉग पर एक साल " (चर्चा अंक-3323) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
....
अनीता सैनी
सुन्दर
ReplyDeleteHii there
ReplyDeleteNice blog
Guys you can visit here to know more
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