मुझ तक आने से पहले ही
खर्च चुके थे तुम
अपने सारे उम्र भर के वादे
गर्मी की किसी दोपहर
किसी नीम अँधेरे कमरे में
जो होठों से मेरे माथे पर रखा था
वो बिछोह था हमेशा का
अमृता को पढ़ती हूँ
गला भर आता है
तुमसे बेतरतीब बालों वाले
किसी छोटे बच्चे को देखती हूँ
फूट -फूट कर रोने लगती हूँ
दिल उस सूफी का मज़ार है
जिसका कासा कभी न भरा
हथेलियों में उठाये फिर रही हूँ
गर्म दिन, लम्बी रातें
मेरी रूह पर जलने के दाग
पक्के होने लगे हैं
सुन्दर
ReplyDeleteअंतर मन की वेदना के स्वर।
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