यादों की हरश्रृंगारी महक ।
अल्हड उन बतियों की चहक ।
ढलकी - ढलकी चितवन ये
रूखे अधरों का कंपन ये ।
बिखर गई अलकों में ...
बीते दिनों की राख सी ...
सिमट गई लाली जो ...
झुर्रियों में अनायास ही ...
कसक बहुत रही है आज ।
जो तोड़ ना सके थे कायर हाथ ।
उन बीते दिनों के अनचाहे ...
बंधनों की झूठी लाज ।।
-अलका गुप्ता
हार्दिक आभार आप सभी का आदरणीय !!!
ReplyDeleteअलका गुप्ता जी की सुन्दर रचना पढ़वाने हेतु धन्यवाद
ReplyDeleteनारी स्वभाव का चिर परिचित अंदाज़ कभी विद्रोह की चिंगारी सुलगाता है तो कभी अतीत पर मनन करता है। यह मनन ज़रूरी है भविष्य में बंधनों की जकड़न से नारी शक्ति को उबारने के लिए। रचना का सन्देश हृदयस्पर्शी भावों के साथ उभरा है।
ReplyDeleteनमस्ते, आपकी यह रचना गुरुवार 15 -06 -2017 को "पाँच लिंकों का आनंद " http://halchalwith5links.blogspot.in में लिंक की गयी है। चर्चा के लिए आप भी आइयेगा ,आप सादर आमंत्रित हैं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना अलका जी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना है
ReplyDeleteबहुत ही लघु शब्द, किन्तु हजारों भावनायें समेटे सुन्दर रचना आदरणीय ,आभार। "एकलव्य"
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