रात के ठीक बारह बजे
जब मुन्नी बिटिया
किसी परी के देश में
विचर रही होगी बेपरवाह
ठीक उसी वक्त
मेरे जेहन में भी
विचरने लगता है
विचारों का झोंका
उतरने को कागज पर
ठीक उसी वक्त
घड़ी टिक -टिक करती हुई
प्रवेश करती है
नए दिन में
ठीक उसी वक्त
बदल जाता है
दीवार पर लटके
कैलेंडर का एक दिन
ठीक बारह बजे ही सुनाई पड़ती है
चौकीदार की कड़क आवाज़
जागते रहो ,जागते रहो
और भौंकने लगते हैं कुत्ते
रात के ठीक बारह बजे ही
याद आती है
नानी -दादी की कहानी
कि ऐसे ही समय निकलता है
बाॅसों की झुरमुटों से भूत
ठीक बारह बजे ही
मिलती है
भूत और वर्तमान की सीमा -रेखा
शायद इसीलिए
ठीक बारह बजे जन्मे थे
किशन कन्हैया
पर,आज
ठीक बारह बजे
लिख रही हूँ एक कविता
मुझे सहमा देती है
वक़्त की सहनशीलता
कि कैसे झेल पाता है यह
एक दिन के गुजरने की पीड़ा
- डॉ. भावना
मुजफ्फरपुर, बिहार.
bhoat sunder
ReplyDeleteसुन्दर।
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