ज़माना सरल तो नहीं। 
परोसा गरल तो नहीं।
अँधेरे में रोशन दिखा, 
किसी का महल तो नहीं।
भटकता फिरे है कोई, 
हुआ बेदख़ल तो नहीं।
मिली है हुकूमत उसे, 
दुखी आज-कल तो नहीं।
धुँधलका है क्यों सामने, 
नज़र ही सजल तो नहीं।
सवालों के अंबार हैं, 
मिला कोई हल तो नहीं।
ज़ुबाँ पर अलग राग है, 
लिया दल बदल तो नहीं।
लगे है जमीं डोलती, 
रहा खल उछल तो नहीं।
मेरे ज़ख़्म के रंग सी,
खड़ी है फसल तो नहीं।
कहें क्या मुलाकात हम, 
मिला एक पल तो नहीं।
नहीं दीखता आज-कल, 
गया वो निकल तो नहीं।
कही 'सिद्ध' ने जो अभी, 
कहीं वो ग़ज़ल तो नहीं।
- ठाकुर दास 'सिद्ध'

बढ़िया कही :)
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर गजल....
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