मुझे चिकन बिरयानी सोचकर ही खा जाइएगा क्या
औरत हूँ तो आँखों से नोचकर ही खा जाइएगा क्या
माना मेरा जिस्म नर्म, नाजुक, गोरा और मखमली है
तो गिद्द सी निगाहों से खरोंचकर ही खा जाइएगा क्या
तन से थोड़ा आगे बढ़िये, मैं मन भी हूँ, मैं रूह भी हूँ
खुली हुई पलकों में दबोचकर ही खा जाइएगा क्या
मुझे सुनाई देती है लार में डूबी तुम्हारी खामोश लिप्सा
गन्दे - गन्दे लफ्जों से टोंचकर ही खा जाइएगा क्या
दिल का कलुष तुम्हारी बोली से नहीं मिल रहा
जुबाँ से अपने होठों को पोंछकर ही खा जाइएगा क्या
-कुसुम शुक्ला.. फेसबुक से
सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसटीक रचना
ReplyDeleteकलुषित सोच को ललकारती रचना। पढ़कर विचार अवश्य करेंगे पाठक। सीधे -सपाट शब्दों में स्त्री के आक्रोशित भावों को पेश करती रचना।
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