कोई दुःख
इतना बड़ा नहीं होता...
जितना
मन ने बढ़ा लिया धीरे-धीरे..;
पानी में पड़े
तेल की बूँद की तरह..!
न ही मन का ख़ालीपन
इतना विस्तृत..;
जिसमें समा जाए-पूरा पहाड़..!
कोई अनुभूति
इतनी गहरी नहीं होती कि
उसके मापन के लिए
असफल हो जाएँ-
सारे निर्धारित मात्रक..!
कोई रुदन
इतना द्रावक नहीं होता कि
बन जाए-
एक नया महासागर..!
कोई व्याकुलता
इतनी विवश नहीं होती कि
भरी दोपहरी भी
अमावस की
अँधेरी-आधी रात लगने लगे..!
न ही कोई सन्तोष
इतना फलदायी कि
बालू निचोड़कर
प्यास बुझायी जाए..!
पागलपन की
निर्मम भावुकता लिए
भटकते-भटकते...
अब तो केवल होंठ ही नहीं..;
जल जाती है-
आत्मा तक भी..!
काश!
हम दूध ही फूँक-फूँककर पिये होते..!
©अकिञ्चन धर्मेन्द्र
सुन्दर
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 30 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteअति सुंदर रचना
ReplyDeleteअत्यंत सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत बड़ी बात....
सटीक सीख देती लाजवाब रचना।
सचमुच पागलपन की हद तक भावुकता !!!
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 31.12.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
सुन्दर सृजन - - नूतन वर्ष की असंख्य शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteअद्भुत सृजन।
ReplyDeleteनव वर्ष मंगलमय हो, हार्दिक शुभकामनाएं।