गंवार हूं मेरा दर्द कुछ खास नहीं होता
शीशा चुभे या कांटा मुझे अहसास नहीं होता।
जब भी लगी ठोकर हम रोकर संभल गए
गैर क्या अपना भी कोई पास नहीं होता।
मुझे किसी के साने की कीमत क्या पता
गवार न होते तो ये कच्चा हिसाब नहीं होता।
महफिल थी काबिलों की हम खामोश हो गए
दिल है के नहीं दिलमें ये आभास नहीं होता।
ये हम मानते हैं अब हम मगरूर हो गए हैं
के मुझको ही मेरे दर्द पे विश्वास नहीं होता।
जानिब ये एक बात है अब भी कहीं दिल में
धरती अगर न होती तो आकाश नहीं होता।
-पावनी दीक्षित जानिब
सीतापुर
वाह..!
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 20 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteखूबसूरत अहसासों से भरी ग़ज़ल..।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteबेहतरीन रचना...
ReplyDeleteभाव पूर्ण रचना।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteसुन्दर सृजन।
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