उठ समाधि से ध्यान की, उठ चल
उस गली से गुमान की, उठ चल
मांगते हो जहाँ लहू भी उधार
तुने वां क्यों दूकान की, उठ चल
बैठ मत एक आस्तान पे अभी
उम्र है यह उठान की, उठ चल
किसी बस्ती का हो न वाबस्ता
सैर कर इस जहाँ की, उठ चल
जिस्म में पाँव है अभी मौजूद
जंग करना है जान की, उठ चल
तू है बेहाल और यहाँ साजिश
है किसी इम्तेहान की, उठ चल
है मदारो में अपने सय्यारे
ये घड़ी है अमान की, उठ चल
क्या है परदेस को देस कहाँ
थी वह लुकनत जुबां की, उठ चल
हर किनारा खुर्म मौज थे
याद करती है बान की, उठ चल
- जौन एलिया
मुग्ध करती सुन्दर रचना।
ReplyDeleteजान एलिया से रूबरू होना खुद को एक अजीब अहसास में पाने जैसा है । रूबरू कराने हेतु आभार ।
ReplyDeleteशानदार।
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना।
ReplyDeleteसादर।