नेज़ों पे दौड़ने का हुनर ढूंढता रहा
हमको हमारे बाद सफ़र ढूंढता रहा..
जब साथ थे तो संजीदा वो ही था और न मैं
वो मुझको और मैं उसको मगर ढूंढता रहा..
सूरज ख़रीद डाले हैं लोगों ने और मैं
ताउम्र जुगनुओं में सहर ढूंढता रहा..
होने को यूं तो नाम वसीयत में था मगर
एक बाप अपना लख्ते जिगर ढूंढता रहा..
अफ़वाह में वो आंच थी अखबार जल गए
मैं इश्तिहारों में ही ख़बर ढूंढता रहा ......
ये देखिये कि कितनी थी शिद्दत तलाश में
मत पूछिए मैं किसको किधर ढूंढता रहा .
(क़तरा से)
- सचिन अग्रवाल
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 15 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
बहुत सुंदर।
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