आओ, अलाव जलाएँ,
सब बैठ जाएँ साथ-साथ,
बतियाएँ थोड़ी देर,
बांटें सुख-दुख,
साझा करें सपने,
जिनके पूरे होने की उम्मीद
अभी बाक़ी है.
हिन्दू, मुसलमान,
सिख, ईसाई,
अमीर-गरीब,
छोटे-बड़े,
सब बैठ जाएँ
एक ही तरह से,
एक ही ज़मीन पर,
खोल दें अपनी
कसी हुई मुट्ठियाँ,
ताप लें अलाव.
घेरा बनाकर तो देखें,
नहीं ठहर पाएगी
इस अलाव के आस-पास
कड़ाके की ठंड...!!
लेखक परिचय - ओंकार
"घेरा बनाकर तो देखें,
ReplyDeleteनहीं ठहर पाएगी
इस अलाव के आस-पास
कड़ाके की ठंड...!!"
वाह वाह
वाह अछी रचना
ReplyDeleteअलाव ... प्रतिक आग का ... अलाव ... ठण्ड से बचने के लिए आम आदमी का साधन ...आग, नदी, सूरज, चाँद, हवा ... सारे के सारे प्राकृतिक वरदान कहाँ भेद करते हैं भला जाति या सम्प्रदाय में .. ये विष तो हम इंसानों ने बोए हैं मंदिर, मस्जिद, गिरजा और गुरुद्वारे के नाम के ..
ReplyDeleteअच्छी सोच .. अच्छी रचना ..
सुन्दर
ReplyDeleteइस अलाव के आस-पास
ReplyDeleteकड़ाके की ठंड...!!"
वाह वाह
बहुत सुंदर और भावनाओं से भरा है ये आपसी सौहार्द का अलाव | काश ये हर नुक्कड़ पर आज भी दहके और शीत होते भाईचारे को आत्मीयता की गर्माहट दे | हार्दिक शुभकामनायें ओंकार जी इस भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए |
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