Tuesday, August 29, 2017

कातिलाना वार करती वो अदा.....नवीन मणि त्रिपाठी

2122 2122 2122 212
वो तेरा छत पर बुलाकर रूठ जाना फिर कहाँ ।
वस्ल के एहसास पर नज़रें चुराना फिर कहाँ ।।

कुछ ग़ज़ल में थी कशिश कुछ आपकी आवाज थी ।
पूछता ही रह गया अगला तराना फिर कहाँ ।।

आरजू के दरमियाँ घायल न हो जाये हया ।
अब हया के वास्ते पर्दा गिराना फिर कहाँ ।।

कातिलाना वार करती वो अदा भूली नहीं ।
शह्र में चर्चा बहुत थी अब निशाना फिर कहाँ ।।

तोड़ते वो आइनों को बारहा इस फिक्र में । 
लुट गया है हुस्न का इतना खज़ाना फिर कहाँ ।।

था बहुत खामोश मैं जज़्बात भी खामोश थे ।
पढ़ लिया उसने मेरे दिल का फ़साना फिर कहाँ ।।

खो गए थे इस तरह हम भी किसी आगोश में ।
याद आया वो ज़माना पर ठिकाना फिर कहाँ ।।

उम्र की दहलीज पर यूँ ही बिखरना था मुझे ।
वो लड़कपन ,वो जवानी, दिन पुराना फिर कहाँ ।।

ढल चुकी हैं शोखियाँ अब ढल चुके अंदाज भी ।
अब हवाओं में दुपट्टे का उड़ाना फिर कहाँ ।।

हुस्न की जागीर पर रुतबा था उसका बेमिशाल।
झुर्रियों की कैद में अब भाव खाना फिर कहाँ ।।

मैकदों के पास जब ग़ुज़रा तो ये आया खयाल ।
सरबती आंखों से अब पीना पिलाना फिर कहाँ ।।

-नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

9 comments:

  1. वाह ! लाजवाब ग़ज़ल ! बहुत खूब

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  2. वाह!!!
    बहुत ही लाजवाब...।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-08-2017) को "गम है उसको भुला रहे हैं" (चर्चा अंक-2712) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. बहुत‎ सुन्दर‎

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  5. ढल चुकी हैं शोखियाँ अब ढल चुके अंदाज भी ।
    अब हवाओं में दुपट्टे का उड़ाना फिर कहाँ ।।
    आदरणीय आपकी एक -एक पंक्तियाँ लाज़वाब हैं बहुत सुन्दर
    शुभकामनाओं सहित ,आभार ''एकलव्य"

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