अजब नक - चढ़ा आदमी हूँ
जो तुक की कहो बे-तुका आदमी हूँ
बड़े आदमी तो बड़े चैन से हैं
मुसीबत मिरी मैं खरा आदमी हूँ
सभी माशा-अल्लाह सुब्हान-अल्लाह
हो ला-हौल मुझ पर मैं क्या आदमी हूँ
ये बचना बिदकना छटकना मुझी से
मिरी जान मैं तो तिरा आदमी हूँ
अगर सच है सच्चाई होती है उर्यां
मैं उर्यां बरहना खुला आदमी हूँ
टटोलो परख लो चलो आज़मा लो
ख़ुदा की क़सम बा-ख़ुदा आदमी हूँ
भरम का भरम लाज की लाज रख लो
था सब को यही वसवसा आदमी हूँ"।
-सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला"
सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला" की दुर्लभ रचना .बहुत सुन्दर .
ReplyDeleteमहाकवि निराला जी की अर्थपूर्ण ,मननशील, साहित्य के खजाने में संरक्षित अनूठी गज़ल पेश करने के लिए आभार।
ReplyDeleteवाह।
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