मनवा संभालू कैसे डोर हमसफर की
थक गई चलते-चलते राह जिंदगी की
जहां तलाश थी ताउम्र मुस्कुराने की
वहीं भूल गई मुस्कुराना जिंदगी में
किससे करूं गिला किससे करूं शिकायत
जो खो गई आवारगी में
था सर पर ताज जीवन तलाश ना सकी
आज जमाने से लाचार पड़ी है जिंदगी
रंग में उसके ढाल लिया खुद को
मगर रास ना आया कोई जिंदगी में
कैसी है डोर मेरी और उसकी
थक गई बोझ उठाते-उठाते हमराह का
है कशमकश ये कैसी
जो कदम-कदम पर
आंखे नम हो गई जिंदगी से
मनवा कैसा है ये बंधन स्नेह का
जहां दर्द और तन्हाई है जिंदगी
-ममता भारद्वाज
सुन्दर।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ! आभार ''एकलव्य"
मन छूती रचना रचना दी। बहुत सुंदर👌👌
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