Saturday, April 15, 2017

जो मुझको तोड़ता है रातदिन......नूर मुहम्मद 'नूर'

हर घड़ी रिश्ता ग़मो से जोड़ता है रातदिन
कौन है मुझमें, जो मुझको तोड़ता है रातदिन

वह जो दिखलाता है सबको आईना या यूँ कहो
मैं वो शीशा हूँ जो पत्थर तोड़ता है रातदिन

ताकि कल गुल लहलहा उठ्ठें इसी उम्मीद पर
खून से लथपथ वो सहरा कोड़ता है रातदिन

आज भी तो जंगलों में मुफलिसी के चार सू
भूख का काला हिरण इक दौड़ता है रातदिन

एक सर हैं करोड़ो सर, सरों की सरगुज़श्त
नूर नाहक तो नही सर फोड़ता है रातदिन ||

सरगुज़श्त :: आत्मकथ्य

- नूर मुहम्मद 'नूर' 

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