मुझे नहीं मालूम कैसे
पर हँसते ही
फूल खिल जाते हैं
दिल मिल जाते हैं
ग़म के स्तंभ हिल जाते हैं
रंग छा जाते हैं
ढंग भा जाते हैं
दंभ के व्यंग्य सकुचाते हैं
राग बज जाते हैं
भाग जग जाते हैं
हर्ष के पल मिल जाते हैं
पर्दे उठ जाते हैं
अंतर घट जाते हैं
छल के बल घट जाते हैं
बंधन खुल जाते हैं
रस्ते मिल जाते हैं
दर्द के दंश घुल जाते हैं
मुझे नहीं मालूम कैसे
पर हँसते ही
तत्व अमरत्व के पास आते हैं
और
अम्ल आसुरी मुड़ जाते हैं
-गिरिजा अरोड़ा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-04-2017) को
ReplyDelete"सूरज अनल बरसा रहा" (चर्चा अंक-2622)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सुंदर वैभव प्रयास
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteसुन्दर!
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