मैंने देखा हैं,
बैसाखियों के सहारे।
वृद्धाश्रम की ओर बढ़ते,
उस अपाहिज विधुर बाप को।।
जो चेहरे पर अनगिन,
झुर्रियों के निशान लिए।
वर्षों के अनुभवों को,
बयान कर रहा था भीड़ में।।
और सुना रहा था अपनी,
उस करूण गाथा को
जो रची थी उसके अपनों ने।
जिन्हें सदा चाहा था उसने।
और जागता रहा दिन रात ,
उनके सपनों को पूरा करने।।
मगर जाने क्यों अब?
वो ही सपनों के सौदागर
इस कदर ज़ालिम बन,
दे रहे थे ठोकरें।
और वो अपाहिज विधुर बाप ,
मज़बूत सहारे को तलाशता
दीवारों से टकराता
भटक रहा था इस कदर।।
और ढूँढ़ रहा था आश्रय कि ,
बच जाए उसका अस्तित्व
और मिलें उसके,
सपनों को आवाज़।
जहाँ कुछ पल ही सही पर,
समर्पण का भाव हों।
और भूखे पेट को तृप्त करें,
वो अन्न रूपी प्रसाद हों।।
-कवि अनमोल तिवारी "कान्हा"
बैसाखियों के सहारे।
वृद्धाश्रम की ओर बढ़ते,
उस अपाहिज विधुर बाप को।।
जो चेहरे पर अनगिन,
झुर्रियों के निशान लिए।
वर्षों के अनुभवों को,
बयान कर रहा था भीड़ में।।
और सुना रहा था अपनी,
उस करूण गाथा को
जो रची थी उसके अपनों ने।
जिन्हें सदा चाहा था उसने।
और जागता रहा दिन रात ,
उनके सपनों को पूरा करने।।
मगर जाने क्यों अब?
वो ही सपनों के सौदागर
इस कदर ज़ालिम बन,
दे रहे थे ठोकरें।
और वो अपाहिज विधुर बाप ,
मज़बूत सहारे को तलाशता
दीवारों से टकराता
भटक रहा था इस कदर।।
और ढूँढ़ रहा था आश्रय कि ,
बच जाए उसका अस्तित्व
और मिलें उसके,
सपनों को आवाज़।
जहाँ कुछ पल ही सही पर,
समर्पण का भाव हों।
और भूखे पेट को तृप्त करें,
वो अन्न रूपी प्रसाद हों।।
-कवि अनमोल तिवारी "कान्हा"
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteदिनांक 06/04/2017 को...
ReplyDeleteआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंदhttps://www.halchalwith5links.blogspot.com पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आप की प्रतीक्षा रहेगी...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (06-04-2017) को
ReplyDelete"सबसे दुखी किसान" (चर्चा अंक-2615)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
विक्रमी सम्वत् 2074 की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सटीक व सुंदर अभिव्यक्ति !आदरणीय मैं अपनी रचना "ख़ाली माटी की जमीं" के लिए आपको आमंत्रित करता हूँ। आभार
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