बरस महीने दिन छोटे छोटे होते अदृश्य ही हो जाते हैं और मैं बैठी रहती हूँ अभी भी उनको उँगलियों पे गिनते हुए बार बार हिसाब लगाती हूँ मगर जिन्दगी का गणित है कि सही बैठता ही नहीं -मंजू मिश्रा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-04-2017) को
"जिन्दगी का गणित" (चर्चा अंक-2614) पर भी होगी। -- सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। विक्रमी सम्वत् 2074 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ। सादर...! डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-04-2017) को
ReplyDelete"जिन्दगी का गणित" (चर्चा अंक-2614)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
विक्रमी सम्वत् 2074 की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन सैम मानेकशॉ और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है।कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteयही तो जिंदगी है ... गणित ठीक कहाँ बैठता है सबका ... मुश्किल है सब्जेक्ट भी और समझ भी ...
ReplyDeleteजिन्दगी गणित नहीं है यह तो कविता है..कविता की तरह गुनगुनाएं जिन्दगी को तो यह सारे राज खोल देती है..
ReplyDelete