Wednesday, November 15, 2017

सोच में सीलन बहुत है......सीमा अग्रवाल

सोच में सीलन बहुत है
सड़ रही है,
धूप तो दिखलाइये

है फ़क़त उनको ही डर
बीमारियों का
जिन्हें माफ़िक हैं नहीं
बदली हवाएँ
बंद हैं सब खिड़कियाँ
जिनके घरों की
जो नहीं सुन सके मौसम
की सदाएँ

लाज़मी ही था बदलना
जीर्ण गत का
लाख अब झुंझलाइए

जड़ अगर आहत हुआ है
चेतना से,
ग़ैरमुमकिन, चेतना भी
जड़ बनेगी
है बहुत अँधियार को डर
रोशनी से,
किंतु तय है रोशनी
यूँ ही रहेगी

क्यों भला भयभीत है पिंजरा
परों से
साफ़ तो बतलाइए

कीच से लिपटे हुए है
तर्क सारे
आप पर, माला बनाकर
जापते हैं
और ज्यादा नग्न
होते है इरादे
जब अनर्गल शब्द उन पर
ढाँकते हैं

हैं स्वयं दलदल कि दलदल
में धंसे हैं
गौर तो फरमाइए

- सीमा अग्रवाल
काव्यालय

4 comments:

  1. Great piece of poetry...

    जड़ अगर आहत हुआ है
    चेतना से,
    ग़ैरमुमकिन, चेतना भी
    जड़ बनेगी
    है बहुत अँधियार को डर
    रोशनी से,
    किंतु तय है रोशनी
    यूँ ही रहेगी
    Wish you a long way to go...

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  2. सुन्दर
    हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनायें

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  3. बहुत सुंदर रचना।

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  4. लाजवाब रचना....
    सुन्दर सार्थक
    वाह!!!

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