प्यार का जब कोई भी मौसम नहीं..
मैं अगर बिखरी हूँ इसका ग़म नहीं ;
मेरी होकर भी सितम करती है ये..
कैसे कह दूँ ज़िंदगी बरहम नहीं ;
ज़िन्दगी के ज़ख्म जो भर देगा अब...
चारागर के पास वो मरहम नहीं ;
हर तरफ़ इक नूर की चादर बिछी...
ज़िंदगी सौगात तेरी कम नहीं ;
वो सुला कर जा चुका दिल का रबाब...
अब फिजां में प्यार की सरगम नहीं ;
रात भर रोती रही थी कहकशां ..
क्या वही आँसू तो ये शबनम नहीं..?
हर क़दम पर साथ ग़म के है ख़ुशी..
सूत है ये ज़िंदगी रेशम नहीं ;
देर से जीते मगर जीतेगा सच..
झूठ का ऊँचा कभी परचम नहीं ;
ज़िंदगी तू हार बैठी मुझसे क्यूँ...
आज़माने को बचा क्या दम नहीं ;
इस ग़ज़ल में ख़ूबियाँ भी हैं ‘सदफ़’...
गौर से देखो तो कमियाँ कम नहीं… !!
लाजवाब गजल......
ReplyDeleteवाह!!!!
सुन्दर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (11-11-2017) को "रोज बस लिखने चला" (चर्चा अंक 2785) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'