
भावों का संप्रेषण
शब्दों की डोर
से पिरोया हार
साहित्य,भाषा का
परिवार,
दिल से
भावों को जोड़े..
भाषा का संसार,
सुंदर मन
भावों में रंगकर
इंद्रधनुषी
कूची कलम से
खींचतें चित्र अनुपम...
अनकहे भावों को रच के
सरसता,
साहित्य का उद्गार,
आईना
जनमानस का
स्वरूप झलकता
समाज का,
कैसे कह दे
न समन्वय
साहित्य में संस्कृति का,
कलमकारी होती अद्भुत....
सबका अपना
नज़रिया यहाँ,
कोई लालित्य
सुधिपान करता,
किसी के
मनोरंजन का
जरिया है यह,
सार्थक निरर्थक
का चक्र भारी
है वाक युद्ध
मर्यादा पर जारी,
विचारों के मंथन
बनाते,
मूर्ख और विद्वान,
विचारों का सृजन
होता नहीं व्यर्थ
बनकर इतिहास
जीवन काल के
पृष्ठों पर अंकित,
धरोहर बन साहित्य का
भाषा बताती संस्कृति,
न लौटेगा कभी
उस समय के संदर्भ में।
-श्वेता सिन्हा
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteतआज़्ज़ुब, श्वेता सखि आप और यहाँ
आनन्दित हुई मैं
आदर सहित
very nice
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (07-11-2017) को
ReplyDeleteसमस्यायें सुनाते भक्त दुखड़ा रोज गाते हैं-; 2781
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, बुजुर्ग दम्पति, डाक्टर की राय और स्वर्ग की सुविधाएं “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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