धूप छांह खेल सदृश
सब जीवन बीता जाता है
समय भागता प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में
हमें लगाकर भविष्य-रण में
आप कहां छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है.
बुल्ले, नहर, हवा के झोंके
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है
वंशी को बज जाने दो
मीठी मीड़ों को आने दो
आंख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है
सब जीवन बीता जाता है
-जयशंकर प्रसाद
सुन्दर चयन ।
ReplyDeleteजीवन कैसा भी हो उसे बीत जाना ही है, इसलिए खुश होकर जितने दिन जी लिए वही जीना है
ReplyDeleteप्रसाद जी की बहुत सुन्दर कविता प्रस्तुति हेतु धन्यवाद