अमन-चैन को रोज उड़ाते,
पूछा नहीं परिंदो से
कि जग में है जीते कैसे
पूछा नहीं परिंदो से
सारा जहाँ उनका है अपना
कोई नहीं है सीमा बंधन
उन्होंनें तय किया है कैसे
पूछा नहीं परिंदो से
नाम दिए हैं हमने उनके
नहीं पराया उनका कोई
हिल-मिलकर रहते हैं कैसे
पूछा नहीं परिंदो से
अल-सवेरे कलरव करते
शाम ढले घर को आते
घड़ी नहीं है, कैसे करते
पूछा नहीं परिंदो से
धूप कभी तो छांव कभी है
एक सरीखे घाव नहीं हैं
मिलकर सहते हैं कैसे
पूछा नहीं परिंदो से
कल का किया जुगाड़ नहीं था
आज-अभी मस्ती में रहते
कल का क्या, चहकते कैसे
पूछा नहीं परिंदो से
इस कोने से उस कोने तक
महा मौन की भाषा में
अभिव्यक्त करते हैं कैसे
पूछा नहीं परिंदो से
-के वाणिका 'दीप'
सुन्दर।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुकर्वार (23-12-2016) को "पर्दा धीरे-धीरे हट रहा है" (चर्चा अंक-2565) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'