हर रात बिखर जाते हो मेरे आँगन
तुम्हारे ख्यालों में डूबी मैं
सकुचाई उंगलिओं से
हर भोर तुम्हें चुनती हूँ ..
देखो कैसे सिमट आये हो तुम
मेरी अंजलि में..
तुम्हें अपने आँचल में छिपा
मैं आहिस्ता आहिस्ता
आँखे चुराकर
कान्हा के पार्श्व से गुज़रती हूँ..
कि कहीं उनकी मोहक छवि,
मनोहारी मुस्कान
और बाँसुरी के सम्मोहन से बाध्य हो
मैं तुम्हें उनके चरणों में अर्पित न कर दूँ..
सजाया है तुम्हें यहाँ
अपनी कविताओं के मध्य
कि तुम उनकी महक हो
अनायास बहती नमी हो
केसरिया मन हो..
मेरी हर अनुभूति के साक्ष्य
तुम मेरे आँगन के हरसिंगार हो..
~निधि सक्सेना
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (28-12-2016) को "छोटी सोच वालों का एक बड़ा गिरोह" (चर्चामंच 2570) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (28-12-2016) को "छोटी सोच वालों का एक बड़ा गिरोह" (चर्चामंच 2570) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'तुम मेरे आँगन के हरसिंगार हो'वाह !
ReplyDeleteसोये भाव जगा दे ऐसी प्रस्तुति सार्थक हो जाती है.
ReplyDeleteसोये भाव जगा दे ऐसी प्रस्तुति सार्थक हो जाती है.
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