ये बिखराव कैसा है
जिसे समेटने के लिए
मेरी हथेलियां दायरे बनाती हैं
फिर कुछ समेट नहीं पाने का
खालीपन लिये
गुमसुम सी मन ही मन आहत हो जाती हैं
अनमना सा मन
ख्यालों के टुकड़ों को
उठाना रखना करीने से लगाना
सोचना आहत होना
फिर ठहर जाना
....
मन का भारी होना जब भी
महसूस किया
तुम्हारा ही ख्याल सबसे पहले आया
तुम कैसे जीते हो हरपल
बस इतना ही सोचती तो
मन विचलित हो जाता
इक टूटे हुए ख्याल ने आकर
मुझसे ये पूछ लिया
इन टुकड़ों में तुम भी बंट गई हो
मैं मुस्करा दी जब आहत भाव से
वो बनकर आंसू
बिखर गया मेरी हथेलियों में !!
-सीमा 'सदा' सिघल
Waaaaah ....... Aabhar aapka
ReplyDeleteसुन्दर ।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteवाह
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