इस रंग में भी अपनी सफ़ाई हुई तो है
ये ज़िन्दगी लहू में नहाईं हुई तो है
जिस आग में झुलसता है ख़ुद आप का यक़ीं
वो आग आप ही की, लगाई हुई तो है
परदे में लाख छुपिये पर तस्वीर आपकी
ख़ाबो-ख़याल में सही, आई हुई तो है
भटके जो कोरचश्म कोई मेरा क्या क़ुसूर
रस्ते में मैंने शम्म, जलाई हुई तो है
आये न आये मर्ज़ी-ए-हुस्ने-सरापा-नाज़
बज़्मे-नियाज़ मैंने, सजाई हुई तो है
पहलू से उठ के चल दिए वो, हर अदा मगर
अब तक दिलो-दिमाग़ पे, छाई हुई तो है
पी कर जिसे दरीचा-ए-फ़िक्रे-सुख़न खुला
वो मय भी आप ही की, पिलाई हुई तो है
मानें न मानें आप हक़ीक़त है ये मगर
झूठे ख़ुदाओं से भी, ख़ुदाई हुई तो है
हैरत की बात है कि अभी तक न भर सका
‘ये ज़ख़्मे-दिल है इसकी, दवाई हुई तो है’
‘काविश’ ये बात अलग है न कुछ गुफ़्तगू हुई
उनके हुज़ूर तेरी, रसाई हुई तो है
‘काविश’ हैदरी,
लाजवाब ग़ज़ल है ...
ReplyDeleteवाह, वाह, वाह, बहुत बढिया।
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