क्या कुछ चुना,क्या कुछ बुना
सब रुई सा लपेटकर उसको धुना !!
जल की रश्मियाँ सूर्य-रश्मियों में
हिल-मिल बातें करती थीं
सुन-सुन कर उन प्यारी बातों को
लहरें खिल-खिल हंसती थीं
खुश हो-होकर सीपियों का
ईनाम बाहर उछालती थीं !!
उनको चुना इनको चुना
सब कुछ को धन सा चुना
पर मैंने सब धुन सा चुना
क्षितिज पर इक मन्द्र स्वर
साँसों की लय पर गान सा बुना
सब प्रतिध्वनियाँ भीतर-भीतर
लौट-लौट आया करती थीं
पदचाप उनकी कुछ भी न होती
पर मन को विचलित करती थीं
उसको सुना ! उसको बुना
उसका मैंने कण-कण चुना
अभिभूत हूँ मैं इतना अब
क्या बताऊँ मैंने क्या-क्या चुना !!
-राजीव थेपरा
......फेसबुक से,
waah behatreen
ReplyDeletewaah behatreen
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