तुम्हें लगता है कड़वी तीरगी पसरी हुई है
ज़रा सी आंख खोलो, रोशनी फैली हुर्इ है
किसी आवाज़ से मिलती नहीं आवाज़ वैसी
वो इक आवाज़ मुझमें जो कहीं खोई हुई है
पता दोनों को है इतना मिले तो डूबना है
उफ़क़ के साथ फिर भी शाम तो लिपटी हुई है
तो साहब ये समझिये साथ ही है, साथ चलना
अलग पटरी से वैसे कब भला पटरी हुई है
हक़ीक़त ने यहां हमला किया है किस बला का
हमारे खा़ब की बस्ती बहुत उजड़ी हुई है
यही चाहा था वो जो चांद है कुछ पास आए
मगर मंज़ूर अपनी कब कोई अर्ज़ी हुई है
पहाड़ों से चली थी जब तो थी शफ़्फ़ाफ़ कितनी
तो किसके ग़म में आख़िर अब नदी काली हुई है
टमाटर, प्याज़, दालें, तेल, चीनी सब में तेज़ी
मगर क्यों ज़िन्दगी पहले से भी सस्ती हुई है
मुझे तो लग रहा है हाथ पीले हो गए हैं
कि खोकर ताज़गी ये धूप कुछ पीली हुई है
उठो ‘नवनीत’ फिर से दर्द का ही आसरा लें
तुम्हारे हाथ ख़ाली हैं ग़ज़ल रूठी हुई है
-नवनीत शर्मा
09418040160
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