Friday, July 31, 2015

कड़वी तीरगी पसरी हुई है............नवनीत शर्मा



तुम्‍हें लगता है कड़वी तीरगी पसरी हुई है
ज़रा सी आंख खोलो, रोशनी फैली हुर्इ है

किसी आवाज़ से मिलती नहीं आवाज़ वैसी
वो इक आवाज़ मुझमें जो कहीं खोई हुई है

पता दोनों को है इतना मिले तो डूबना है
उफ़क़ के साथ फिर भी शाम तो लिपटी हुई है

तो साहब ये समझिये साथ ही है, साथ चलना
अलग पटरी से वैसे कब भला पटरी हुई है

हक़ीक़त ने यहां हमला किया है किस बला का
हमारे खा़ब की बस्‍ती बहुत उजड़ी हुई है

यही चाहा था वो जो चांद है कुछ पास आए
मगर मंज़ूर अपनी कब कोई अर्ज़ी हुई है

पहाड़ों से चली थी जब तो थी शफ़्फ़ाफ़ कितनी
तो किसके ग़म में आख़िर अब नदी काली हुई है

टमाटर, प्‍याज़, दालें, तेल, चीनी सब में तेज़ी
मगर क्यों ज़िन्दगी पहले से भी सस्‍ती हुई है

मुझे तो लग रहा है हाथ पीले हो गए हैं
कि खोकर ताज़गी ये धूप कुछ पीली हुई है

उठो ‘नवनीत’ फिर से दर्द का ही आसरा लें
तुम्हारे हाथ ख़ाली हैं ग़ज़ल रूठी हुई है

-नवनीत शर्मा 
09418040160


Wednesday, July 29, 2015

आप भी ऐसा कर सकते हैं...संकलन याहू ग्रुप से

आप भी ऐसा कर सकते हैं...
बस आवश्यकता है
धैर्य की
एकाग्रता की

Intricate Sculptures Carved from a Single Pencil

















सोनू विशाल

Sunday, July 26, 2015

If you don’t like something, change it.,,,Vishal Das

Wanna go to India?
Leh–Manali highway in Northern India probably has the most unusual road signs in the world.

 










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If you don’t like something, change it.
If you can’t change it, change your attitude.
Don’t complain.

-Vishal Das-

Yahoo Group: sonu vishal

Saturday, July 25, 2015

कुछ नई परिभाषाएँ...निधि मेहरोत्रा



व्यापारी
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा
दिल की जेब में खनकती रेज़गारी है

डॉक्टर
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा
अमां ये तो इक लाइलाज बीमारी है

किसान
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा 
तैयार फसल के कटने की तैयारी है

पुलिस
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा 
वो गुनाह जिसकी सज़ा ताउम्र पे भारी है

इंजीनियर
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा 
यक़ीन की नींव पे निर्माण कार्य जारी है

फौजी
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा 
अपने ही जज़्बातों से रोज़ जंग हमारी है

संगीतज्ञ
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा
दिल के राग पर धड़कनों की धुन प्यारी है

शेफ
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा
हर बार कुछ लज़ीज़ बनाने की ज़िम्मेदारी है

वैज्ञानिक
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा
क्यों है, क्या है, प्रयोग अभी तक जारी है

टीचर
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा
सबक पढ़ पढ़ाने के बाद ज़िन्दगी न्यारी है

वक़ील
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा 
कुछ हो जाए इसके आगे दुनिया हारी है

लेखक
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा
सबने लिखा है इसे अबकि मेरी बारी है

मैं
प्यार है क्या सोचो तो ज़रा
कुछ नहीं तेरा मेरा जिसमें ये जागीर हमारी है

-निधि मेहरोत्रा

Friday, July 24, 2015

आगे तो बढ़ !.....................अनुज तिवारी


राह देखती ,
तेरे इन्तजार मे ,
राहें भी आज ! १ !

आगे तो बढ़ !
हौसला है तुझमे ,
कदम बढ़ा ! २ !

कन्धे पे जमीं !
आसमान पैरों पे ,
अब दे झुका ! ३ !

दम तोड दे ,
पवन घुटन से ,
गर चाह ले ! ४ !

ऐसी तपन !
जल भी जल जाये ,
गर चाह ले ! ५ !

सूरज को भी !
प्रभा को ताकने की ,
फुर्सत ना हो ! ६ !

घूमना चाहे !
धरती धुरी पर ,
जुर्रत ना हो ! ७ !

हौसला रख !
आग की औकात क्या ,
तुझे जला दे ! ८ !

बस फासला !
चादं हिन्दुस्तान में ,
दो कदम का ! ९ !

रख हौसला !
अपने जिगर में ,
आजमाने का ! १० !

-अनुज तिवारी
रचनाकार मध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर निवासी हैं
नवोदित रचनाकार प्रचार-प्रसार के अभिलाषी नहीं है
वर्तमान में आप अपनी रचनाएँ 
हिन्दी काव्य संकलन में 
संग्रहित करते हैं
सम्पर्क सूत्रः +9158688418

Wednesday, July 22, 2015

नहीं जानती क्यों................फाल्गुनी











नहीं जानती क्यों
अचानक सरसराती धूल के साथ
हमारे बीच
भर जाती है आंधियां
और हम शब्दहीन घास से
बस नम खड़े रह जाते हैं

नहीं जानती क्यों
अचानक बह आता है
हमारे बीच
दुखों का खारा पारदर्शी पानी
और हम अपने अपने संमदर की लहरों से उलझते
पास-पास होकर
भीग नहीं पाते...

नहीं जानती क्यों
हमारे बीच महकते सुकोमल गुलाबी फूल
अनकहे तीखे दर्द की मार से झरने लगते हैं और
उन्हें समेटने में मेरे प्रेम से सने ताजा शब्द
अचानक बेमौत मरने लगते हैं..
नहीं जानती क्यों.... 

--फाल्गुनी

Tuesday, July 21, 2015

ज़िक्र जिस दम भी छिड़ा..........गोपाल दास सक्सेना "नीरज"


जब चले जाएंगे लौट के सावन की तरह ,
याद आएंगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह 

ज़िक्र जिस दम भी छिड़ा उनकी गली में मेरा
जाने शरमाए वो क्यों गांव की दुल्हन की तरह

कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ पाती वो 
जिन्दगी उलझी रही ब्रह्म के दर्शन की तरह 

दाग मुझमें है कि तुझमें यह पता तब होगा ,
मौत जब आएगी कपड़े लिए धोबन की तरह 

हर किसी शख्स की किस्मत का यही है किस्सा ,
आए राजा की तरह ,जाए वो निर्धन की तरह

जिसमें इन्सान के दिल की न हो धड़कन की नीरज '
शायरी तो है वह अखबार की कतरन की तरह

- गोपाल दास सक्सेना "नीरज" 
पद्म श्री सम्मान (1991)
पद्म भूषण सम्मान (2007)
.......SUNDAY@ नवभारत

Monday, July 20, 2015

फिर दबा लिया गम को..............नवीन मणि त्रिपाठी



ख्वाहिशे चाँद ने यूँ ही बुला लिया हमको।
मेरी नज़र से कोई दूर कर लिया तुमको।।

ईद का जश्न मनाना मेरी मजबूरी थी।
बड़ी खामोशियों से फिर दबा लिया गम को।।

या इलाही तेरी मगरूरियत भी जालिम है ।
मेरे जख्मो का अफ़साना सुना लिया उनको ।।

तेरी पनाह में मुमकिन थी जिंदगी अपनी।
दौरे मुफ़लिस में था मैंने भुला लिया रब को ।।

यहाँ इबादतों पे , बददुआ ही हासिल है ।
उसके सज़दे ने फिर हैरत में ला दिया सबको।।

मेरा यकीन भी किस्मत का गुनहगार बना।
मेरी वजह से क्यों तुमने मिटा लिया खुदको।।

थी तमन्ना कि मेरा चाँद निकल आएगा ।
बेरहम बादलों ने फिर चुरा लिया उसको ।।

--नवीन मणि त्रिपाठी

Sunday, July 19, 2015

पुकारा तो ज़रूर होगा............सदा










कभी प्रेम 
कभी रिश्ता कोई 
बन गया हमनवां जब 
तुमने जिंदगी को 
हँस के गले 
लगाया तो ज़रूर होगा !
... 
मांगने पर भी 
जो मिल न पाया 
ऐसा कुछ छूटा हुआ 
बिछड़ा हुआ 
कभी न कभी 
याद आया तो 
ज़रूर होगा !!
... 
कोई शब्द जब कभी 
अपनेपन की स्याही लिए 
तेरा नाम लिखता
हथेली पे 
तुमने चुराकर नज़रें 
वो नाम 
पुकारा तो ज़रूर होगा!!!

-सदा





Saturday, July 18, 2015

ईद की शुभ कामनाएँ.....शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

                          

छोड़ हर शिकवा गिला, दिल को मिला, ईद मना।
भूल    जा   अपनी  जफ़ा,  मेरी ख़ता, ईद मना।
 

बुग़्ज़ को  छोड़  दे,  नफ़रत  को भुला, ईद मना।
ये  भी  नेकी  है, ये  नेकी  भी  कमा, ईद मना।
 

हो  सका  जितना  भी  वो  तूने किया, अच्छा है,
 सोच  मत, ये  न  हुआ, वो  न  हुआ, ईद मना।
  

इससे  लेना  है, उसे  देना  है, सब  चलता  है, 
उलझनें  जे़हन  से  सब  दूर  हटा, ईद मना।
 

ऊंचे महलों में  सभी ख़ुश हों,  ज़रूरी तो नहीं,
जो  मक़ाम अपना है, वो  देख ज़रा,  ईद मना।
 

वक़्त तो  सबका  बदल जाता है इक  दिन शाहिद,
शुक्र हर  हाल में  कर रब  का अदा,  ईद मना।
                       

-शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

पालकी लिए कहार की .......नीरज गोस्वामी




ज़बान पर सभी की बात है फ़क़त सवार की 

कभी तो बात भी हो पालकी लिए कहार की 


गुलों को तित्तलियों को किस तरह करेगा याद वो 

कि जिसको फ़िक्र रात दिन लगी हो रोजगार की 


बिगड़ के जिसने पा लिया तमाम लुत्फ़े-ज़िन्दगी 

नहीं सुनेगा फिर वो बात कोई भी सुधार की 


वो खुश रहे ये सोच कर सदा मैं हारता गया

लड़ाई जब किसी के साथ लड़ी आरपार की


जिसे भी देखिये इसे वो तोड़ कर के ही बढ़ा 

कहाँ रहीं हैं देश में जरूरतें कतार की 


तुझे पढ़ा हमेशा मैंने अपनी बंद आँखों से 

ये दास्तान है नज़र पे रोशनी के वार की 


चढ़े जो इस कदर कि फिर कभी उतर नहीं सके 


तलाश ज़िन्दगी में है मुझे उसी खुमार की


-नीरज गोस्वामी

मूल पोस्ट

http://ngoswami.blogspot.in/2015/07/blog-post.html











Friday, July 17, 2015

नहीं छोड पाता अपने पद चिन्ह.....निर्मला कपिला












नंगे पाँव चलते हुये
जंगल की पथरीली धरती पर
उलीक दिये कुछ पद चिन्ह
जो बन गये रास्ते
पीछे आने वालों के लिये
समय के साथ
चलते हुये जब से
सीख लिया उसने
कंक्रीट की सडकों पर चलना
तेज़ हो गयी उसकी रफ्तार
संभल कर, देख कर चलने की,
जमीं की अडचने, दुश्वारियाँ. काँटे कंकर
देखने की शायद जरूरत नही रही शायद
जमी पर पाँव टिका कर चलने का
शायद समय नहीं उसके पास
तभी तो वो अब
उलीच नही पाता
अपने पीछे कोई पद चिन्ह
नहीं छोड पाता अपनी पीढी के लिये
अपने कदमों के निशान

– निर्मला कपिला
...... बड़ी दीदी के ब्लाग से
http://www.hopesmagazine.in/?p=7484

Thursday, July 16, 2015

क्या बताऊँ मैंने क्या-क्या चुना...........राजीव थेपरा


















क्या कुछ चुना,क्या कुछ बुना 
सब रुई सा लपेटकर उसको धुना !!
जल की रश्मियाँ सूर्य-रश्मियों में 
हिल-मिल बातें करती थीं 
सुन-सुन कर उन प्यारी बातों को 
लहरें खिल-खिल हंसती थीं 
खुश हो-होकर सीपियों का 
ईनाम बाहर उछालती थीं !!
उनको चुना इनको चुना 
सब कुछ को धन सा चुना 
पर मैंने सब धुन सा चुना 
क्षितिज पर इक मन्द्र स्वर 
साँसों की लय पर गान सा बुना 
सब प्रतिध्वनियाँ भीतर-भीतर 
लौट-लौट आया करती थीं 
पदचाप उनकी कुछ भी न होती 
पर मन को विचलित करती थीं 
उसको सुना ! उसको बुना 
उसका मैंने कण-कण चुना 
अभिभूत हूँ मैं इतना अब 
क्या बताऊँ मैंने क्या-क्या चुना !!
-राजीव थेपरा
......फेसबुक से,

Wednesday, July 15, 2015

पाल बैठा बड़ी उम्मीद बेवफा तुमसे...नवीन त्रिपाठी


बहुत तन्हा हूँ मैं ये वक्त कह गया हमसे।
पाल बैठा बड़ी उम्मीद बेवफा तुमसे ।।

दोस्ती आज बे नकाब मेरी महफ़िल में ।
दीदार फिर से वो मेरा करा गया गम से ।।

फ़िक्र जिस जिस की मैं दिन रात किया करता था।
वही खंजर यहां मुझपर चला गया दम से ।।

मेरे नीलाम की बोली में वह भी हाजिर था ।
मेरी औकात की कीमत लगा गया कम से ।।

-नवीन त्रिपाठी
उर्दू शायरी बज़्म

Monday, July 13, 2015

जो उठा ले इसे बस वही मर्द है................अंसार क़म्बरी



चेहरा-चेहरा यहाँ आज क्यूँ ज़र्द है 
जिस तरफ़ देखिये दर्द-ही-दर्द है

अपने चेहरे में कोई ख़राबी नहीं 
आप के आईने पर बहुत गर्द है

इस क़दर हम जलाये गए आग में
अब तो सूरज भी अपने लिये सर्द है

साथ देता रहा आख़िरी साँस तक
दर्द को दर्द कहिये न हमदर्द है

बोझ है ज़िन्दगी, इसलिए ‘क़म्बरी’
जो उठा ले इसे बस वही मर्द है 

-अंसार क़म्बरी
..............फेसबुक से

Sunday, July 12, 2015

डराने वाला सुनकर डर रहा है...........आयुष ‘चराग़’


डराने वाला सुनकर डर रहा है
हथेली पर हमारा सर रहा है

जला देगा अगर रोका गया तो
अभी लावा सफ़र तय कर रहा है

दुआ दी थी जिसे जीने की तुमने
दुआ मर मर के पूरी कर रहा है

वो जिस बस्ती में दिखता है धुआँ सा
उसी बस्ती में मेरा घर रहा है

तिरा महबूब वो होने से पहले
हमारे साथ भी अक्सर रहा है

आयुष ‘चराग़’ 09953925743

Saturday, July 11, 2015

वक़्त लगता है यार मरने में........स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’


ज़िन्दगी का हिसाब करने में
हो गए ख़ाली क़िस्त भरने में

सतह पर तैरता हूँ बेहरकत
नब्ज़ डूबी मिरी उबरने में

उस ने आवाज़ तो लगायी थी
मैंने ही देर की ठहरने में

खारे आंसू मिला रहा हूँ मैं
तेरी यादों के मीठे झरने में

मैंने सब रंग ख़र्च कर डाले
तेरी ख़ाली जगह को भरने में

तेरा भी नाम खो दिया जानां
मेरी आवाज़ ने बिखरने में

उसने पूछा के आप स्वप्निल हैं?
कितना अच्छा लगा मुकरने में

सीढियां सारी तोड़ डाली हैं
तुमने अंदर मिरे उतरने में

कुछ तो ‘आतिश’ में आंच बाक़ी है
वक़्त लगता है यार मरने में

स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’ 
08879464730

Friday, July 10, 2015

तुम्हारे हाथ में कालर हो..........दुष्यन्त कुमार



तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं 

मैं बेपनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं 

तेरी ज़ुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं 

तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं 

तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं 

बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं 

ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं

-दुष्यन्त कुमार

Thursday, July 9, 2015

Interesting Traces of the Stones

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बेहद खूबसूरत

संग्रहणीय


संकलन


सौजन्य


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