Wednesday, October 22, 2014

उम्मीदों के शहर में............जितेन्द्र "सुकुमार"

 


उम्मीदें लेकर आया था, ना उम्मीदों के शहर में
मौत ने पीछा किया बहोत, ज़िन्दगी के शहर में

सारे लोग परोशां मायूस थे, न जाने क्यों
बड़ा अजीब हो रहा था, खुशी के शहर में

दुश्मनों की मुहब्बत, दोस्तों का सितम था
ये भी देखना पड़ा, हमें दोस्ती के शहर में

अश्कों ने रुलाया, ख़्वाबों ने जगाया बहुत
उस रोज हंसी भूल गया, हंसी के शहर में

ये सन्नाटे बहुत शोर करते थे, वक्त बेवक्त
मैं चैन से सो नहीं पाया, खामोशी के शहर में

दिल को पत्थर बना के रखेगा तो जी लेगा
ए-दिल मत धड़कना, दिल्लगी के शहर में

-जितेन्द्र "सुकुमार"  

चौबे बांधा, राजिम, छत्तीसगढ़

प्राप्ति स्रोत : रविवारीय नवभारत


5 comments:

  1. सुन्दर प्रस्तुति...........दीवाली की हार्दिक शुभकामनायें! मेरी नयी रचना के लिए मेरे ब्लॉग "http://prabhatshare.blogspot.in " पर सादर आमंत्रित है!

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  2. आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा 23-10-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1775 में दिया गया है
    आभार ।

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  3. बेहतरीन कही है ग़ज़ल अलफ़ाज़ दर अलफ़ाज़ अशआर दर अशआर।

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