अजीज़ इतना ही रखो कि जी संभल जाये
अब इस क़दर भी ना चाहो कि दम निकल जाये
मोहब्बतों में अजब है दिलों का धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाये
मिले हैं यूं तो बोहत, आओ अब मिलें यूं भी
कि रूह गरमी-ए-इन्फास* से पिघल जाये
मैं वोह चिराग़ सर-ए-राह्गुज़ार-ए-दुनिया
जो अपनी ज़ात की तनहाइयों में जल जाये
ज़िहे! वोह दिल जो तमन्ना-ए-ताज़ा-तर में रहे
खुशा! वोह उम्र जो ख़्वाबों में ही बहल जाये
हर एक लहज़ा यही आरजू यही हसरत
जो आग दिल में है वोह शेर में भी ढल जाये
गरमी-ए-इन्फासः सांसे
खुशाः खुशी
-उबैदुल्लाह अलीम
1939-1997
वाह ।
ReplyDeleteहर एक लहज़ा यही आरजू यही हसरत
ReplyDeleteजो आग दिल में है वोह शेर में भी ढल जाये
........... वाह क्या बात है, लाजवाब प्रस्तुति
वाह
ReplyDeleteआती सुंदर ||
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