गुमनाम आवाज़ों के लश्कर में
खोई-खोई बहार है,
रुठा-रुठा मौसम है
कैसा उदास मंज़र है
इसमें
तुम और मैं
दीवानों की मानिंद मिलकर
कैसे जिंदगी की बात करें
शहरों की बौखलाई सड़कों पे
रफ़्तार में बंधा मौसम
धूल और आवाज़ों का समंदर
कितनी ऊब है यहां,
इसमें,
तुम और मैं
दीवानों की मानिंद मिलकर
कैसे जिंदगी की बात करें।
सवेरे की सोचते हैं रह-रह के
उदासियों के स्याह अंधेरे
कड़कती बिजलियों का साया
कोई हमसाया तो हो नहीं सकता,
ऐसे में
तुम और मैं
दीवानों की मानिंद मिलकर
कैसे जिंदगी की बात करें...
-सुनीता घिल्डियाल (देहरादून)
बहुत सुंदर रचना ।
ReplyDeleteभावों का सागर
ReplyDeleteशहरों की बौखलाई सड़कों पे
ReplyDeleteरफ़्तार में बंधा मौसम
धूल और आवाज़ों का समंदर
कितनी ऊब है यहां,
इसमें,
तुम और मैं
दीवानों की मानिंद मिलकर
कैसे जिंदगी की बात करें।
..सच एक संवेदनशील इंसान सिर्फ अपनी ख़ुशी की खातिर चैन से नहीं बैठ सकता उसे फ़िक्र होती है सबकी ..
बहुत सुन्दर
बेहतरीन प्रस्तुति...
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