तुम्हारे बच्चों की माँ को
उनके साथ सोता छोड़कर
एक औरत दुनिया में लौटती है
हँसती है
जितना वो चाहें
जब वो चाहें और
पहनती है जो वो चाहें
उतारती है जब वो चाहें
जिस्म से बहुत गहरे कहीं
खुद को अजनबियों के नीचे
एक सामूहिक कब्र में दफन कर
लौट आती है
धोती है गर्म पानी से हाथ
तुम्हारी बेटी के चेहरे को सहलाती है
तुम्हारे बेटे का माथा चूमती है
फिर से सिर्फ उनकी माँ बन जाती है
sundar prastuti
ReplyDeleteशीर्षक ' दो औरत ' होनी चाहिए। समाज में ' आधुनिक चकाचौंध ' और ' पारंपरिक बेबसी ' की दो परतों में क्रमशः खिलखिलाती और बिलबिलाती ज़िंदगियों की हकीकत बयानी!
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक..
ReplyDeleteवाह बहुत खूब बेहतरीन।
ReplyDeleteबहुत मार्मिक रचना
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