रोक लेता चीखकर
तुमको मगर अहसास ऐसा,
ज़िंदगी की वादियों में
शोक का अधिवास कैसा?
नासमझ, अहसास मेरे
क्रंदनों के गीत गाते,
लालची इन चक्षुओं को
चाँद से मनमीत भाते।
ढूँढ़ता हूँ जाग कर
गहरी निशा की ख़ाक में,
वंदनों से झाँकता
अभिनंदनों के ताक में।
उत्तरोत्तर आज भी
चरितार्थ कितनी? बोलकर,
चित्त में गहरे छिपे
मनभाव को झकझोर कर।
ओ मेरे भटके बटोही
आज बस इतना बता दे,
काव्य में लथपथ पड़े
इन आँसुओं की माप क्या है?
-अमित “निश्छल”
तुमको मगर अहसास ऐसा,
ज़िंदगी की वादियों में
शोक का अधिवास कैसा?
नासमझ, अहसास मेरे
क्रंदनों के गीत गाते,
लालची इन चक्षुओं को
चाँद से मनमीत भाते।
ढूँढ़ता हूँ जाग कर
गहरी निशा की ख़ाक में,
वंदनों से झाँकता
अभिनंदनों के ताक में।
उत्तरोत्तर आज भी
चरितार्थ कितनी? बोलकर,
चित्त में गहरे छिपे
मनभाव को झकझोर कर।
ओ मेरे भटके बटोही
आज बस इतना बता दे,
काव्य में लथपथ पड़े
इन आँसुओं की माप क्या है?
-अमित “निश्छल”
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteवाह क्या बात है बहुत ही सुन्दर...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (26-04-2019) को "वैराग्य भाव के साथ मुक्ति पथ" (चर्चा अंक-3317) (चर्चा अंक-3310) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह
ReplyDeleteनिशब्द ¡¡
ReplyDeleteकाव्य में लथपथ पड़े
ReplyDeleteइन आँसुओं की माप क्या है?
काव्य ही आंसुओं की माप है
बेहतरीन रचना
👌 👌 खूब सुंदर
ReplyDeleteबेहतरीन रचना आदरणीय 🙏
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