कितने नाते टूट गए
कितने साथी रूठ गए
हम तो जहाँ थे वहीँ रहे
ना जाने सब कहाँ पर छूट गए
नए नए साथी, नए नए रिश्ते
बने भी और बिखर गए
जिससे जितनी लिखी थी
उतना ही साथ निभा गए
यादें ही रह जाती हैं
बस बातें ही बच जाती हैं
कमी बहुत खलती है मगर
दिन भी यूं ही गुज़र गए
भीड़ में आँखे खोजती हैं
भूले , भटके ,कोई मिल जाए
पर दुनिया एक सराय है
बस आये, ठहरे और चले गए
~ इंदिरा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (30-03-2017) को "सन्नाटा पसरा गुलशन में" (चर्चा अंक-2925) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर
ReplyDelete🙏नमन इंदिरा जी मैं भी डा इन्दिरा थोड़ा लेखन मैं दखल रखती हूँ !
ReplyDeleteस्व को सन्मुख देख खुद को नहीं रोक पाई ! 😆
आपका लेखन हकीकत की जमी को कुरेदता हुआ बेहद उम्दा !
बहुत सुन्दर और सटीक रचना
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