आंसुओं में उमस की रुत घोलें
आरज़ू का कोई वरक़ खोलें
कल तो मंज़िल दिखायी देती थी
आज किस आसरे पे पर तोलें
बांटता कौन दर्द किसका है
लोग ख़ुद अपनी सूलियां ढो लें
रतजगा उम्र भर मनाया है
अब तो ऐ सांस की थकन सो लें
कोई अपना सा हो तो कुछ हम भी
आदमी की तरह हँसें-बोलें
बावफ़ा चांदनी न धूप ‘अहक़र’
ये तहें भी ख़याल की खोलें
स्वर्गीय भगवती प्रसाद ‘अहक़र’ काशीपुरी
Hamdurd aur sukh- dukh ko koi apna sa(like-minded) hi samjh sakta hai. Bahut uttam shbdavli .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
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