साँवली काया, भरा- भरा,
चेहरे पर मेहनत की चमक,
रौनक़ से लबरेज़,
व लम्बी सी सब्जीवाली,
सर पर टोकरी रखे,
घर-घर जाकर बेचती है -
मौसमी फल और सब्जियाँ,
घर के अंदर तक चली जाती है,
माँजी, चाची, दीदी, बीबीजी पुकारती,
छोटे बच्चे, उसे देखते ही झूम उठते हैं,
क्योंकि, शायद सीखा नहीं उसने,
मुस्कुराहटों का क़ीमत वसूलना,
यों ही कुछ तरबूज़ के छोटे-छोटे-टुकड़ों से,
खरीद लेती है...
टोकरी भर कर खिलखिलाहटों को।
कभी आंगन में, कभी ड्योढ़ी पर, तो
कभी उस मर्दों के बैठको में,
रखवाई जाती है, उसकी टोकरी,
वे मर्द, जो रखते है गिद्ध दृष्टि,
अपने ही मोहल्ले के रिश्ते में
लगती बहन, बेटियों पर,
वे मर्द, जो टटोलते हैं -
अपनी नज़रों से उम्र के निशां,
अपनी ही आँखों के सामने -
पैदा हुई लड़कियों के।
वे मर्द, जो रखते है, चौकस ख़बर,
ऐसी ही किसी लड़की की
कोई छोटी, मोटी
नाज़ुक उम्र की नादानियों पर,
ताकि साबित कर चरित्रहीन,
बदनामी का डर दिखा,
बनाते हैं रास्ता,
अपनी कुत्सित, विकृत
कामनाओं को पूरा करने का साधन।
ऐसे ही मर्द, रखवाते हैं,
टोकरी उस सब्जी वाली की,
पूछते हैं भाव,
"कितने में दोगी"
हँस कर बोलती है वह,
किलो का आठ रुपया बाबूजी,
चावल-गेहूँ से बराबर,
ठीक है, पहले टेस्ट कराओ,
माल अच्छा होगा तो...
मुँह माँगी क़ीमत वसूल लेना।
फिर हँसती है वह और,
काट कर छोटा-छोटा टुकड़े तरबूज़ पकड़ाती है,
हाथ उठाते समय,
उन नज़रों के लक्ष्य को भी बचाती है,
जानती है उन सभी शब्दों के मतलब,
फिर भी मुस्कुराती है,
शायद इसीलिये -
कुछ लोग उसे चरित्रहीन कहते हैं।
पर लोग नहीं देख पाते,
भय से आतंकित, उसके हृदय को,
उसके चेहरे को,
जो साये ढलते-ढलते-
बनावटी हँसी, हँसते-हँसते,
थक चुके होते हैं,
और फ़िक्र से अच्छादित ,
लम्बे-लम्बे डग भरती,
अपने भूखे बच्चों
और
खेत से लौटे पति के पास,
क्षण भर में पहुँच जाने की आतुरता,
दिखती है,
इस चरित्रहीन के आँखों में।
-मनोरंजन कुमार तिवारी
manoranjan.tk@gmail.com
सटीक ।
ReplyDeletedhanyabad sir
Deletedhanyabad sir
Deleteसार्थक रचना
ReplyDeletedhanyabad sir
ReplyDeletedhanyabad sir
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