जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो
आलम में जब बहार की लंगत हो
दिल को नहीं लगन ही मजे की लंगत हो
महबूब दिलबरों से निगह की लड़न्त हो
इशरत हो सुख हो ऐश हो और जी निश्चिंत हो
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो
अव्वल तो जाफरां से मकां जर्द जर्द हो
सहरा ओ बागो अहले जहां जर्द जर्द हो
जोड़े बसंतियों से निहां जर्द जर्द हो
इकदम तो सब जमीनो जमां जर्द जर्द हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
मैदां हो सब्ज साफ चमकती रेत हो
साकी भी अपने जाम सुराही समेत हो
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो
दिलबर गले लिपटते हों सरसों का खेत हो
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
ऑंखों में छा रहे हों बहारों के आवो रंग
महबूब गुलबदन हों खिंचे हो बगल में तंग
बजते हों ताल ढोलक व सारंगी और मुंहचंग
चलते हों जाम ऐश के होते हों रंग रंग
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो
चारों तरफ से ऐशो तरब के निशान हों
सुथरे बिछे हों फर्श धरे हार पान हों
बैठे हुए बगल में कई आह जान हों
पर्दे पड़े हों जर्द सुनहरी मकान हों
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म लिखने वाले पहले कवि
जन्मः 1740, आगरा, उ. प्र.
अवसानः 1830
(आज के रसरंग में छपी नज्म)
नज़्म लिखने वाले पहले कवि
जन्मः 1740, आगरा, उ. प्र.
अवसानः 1830
(आज के रसरंग में छपी नज्म)
बहुत सुंदर !
ReplyDeleteआपने दुबारा पढ़ने का अवसर दिया .... इस बेहतरीन रचना को
ReplyDeleteआभार
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (03-02-2014) को "तत्काल चर्चा-आपके लिए" (चर्चा मंच-1512) पर भी है!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'