फिर यूँ हुआ ये काम ज़रूरी सा हो गया
जज़्बात पर लगाम ज़रूरी सा हो गया
जज़्बात पर लगाम ज़रूरी सा हो गया
हमसाये शर्मसार मिरी सादगी से थे
थोड़ा सा ताम-झाम ज़रूरी सा हो गया
परचम उठाये फिरता मैं बेसम्त कब तलक
इक ठौर, इक मुकाम ज़रूरी सा हो गया
कुछ रोज़ मैंने ग़म को मुसलसल किया ज़लील
फिर ग़म का एहतिराम ज़रूरी सा हो गया
शेरो-सुखन से दिल तो बड़ा शाद था मगर
फ़र्दा का इंतज़ाम ज़रूरी सा हो गया
जल्वों में कुछ कशिश न तमाशों में कोई बात
अब तो नया निज़ाम ज़रूरी सा हो गया
छलके कहीं न दर्द का पैमाना देखिये
‘सौरभ’ मियां कलाम ज़रूरी सा हो गया.
सौरभ शेखर 09873866653
http://wp.me/p2hxFs-1F3
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (07.02.2014) को " सर्दी गयी वसंत आया (चर्चा -1515)" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,धन्यबाद।
ReplyDeleteaapki kalam or rachanaa ki sundertaa ko hamara salaam
ReplyDeleteबहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....
ReplyDeleteसुंदर प्रभावशाली प्रस्तुति
ReplyDeleteकुछ रोज़ मैंने ग़म को मुसलसल किया ज़लील
ReplyDeleteफिर ग़म का एहतिराम ज़रूरी सा हो गया
क्या बात है बहोत खूब।