Thursday, February 6, 2014

थोड़ा सा ताम-झाम ज़रूरी सा हो गया..........सौरभ शेखर


फिर यूँ हुआ ये काम ज़रूरी सा हो गया
जज़्बात पर लगाम ज़रूरी सा हो गया

हमसाये शर्मसार मिरी सादगी से थे
थोड़ा सा ताम-झाम ज़रूरी सा हो गया

परचम उठाये फिरता मैं बेसम्त कब तलक
इक ठौर, इक मुकाम ज़रूरी सा हो गया

कुछ रोज़ मैंने ग़म को मुसलसल किया ज़लील
फिर ग़म का एहतिराम ज़रूरी सा हो गया

शेरो-सुखन से दिल तो बड़ा शाद था मगर
फ़र्दा का इंतज़ाम ज़रूरी सा हो गया

जल्वों में कुछ कशिश न तमाशों में कोई बात
अब तो नया निज़ाम ज़रूरी सा हो गया

छलके कहीं न दर्द का पैमाना देखिये
‘सौरभ’ मियां कलाम ज़रूरी सा हो गया.
सौरभ शेखर 09873866653

http://wp.me/p2hxFs-1F3

5 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (07.02.2014) को " सर्दी गयी वसंत आया (चर्चा -1515)" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,धन्यबाद।

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  2. aapki kalam or rachanaa ki sundertaa ko hamara salaam

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  3. बहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....

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  4. सुंदर प्रभावशाली प्रस्तुति

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  5. कुछ रोज़ मैंने ग़म को मुसलसल किया ज़लील
    फिर ग़म का एहतिराम ज़रूरी सा हो गया
    क्या बात है बहोत खूब।

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