उम्र में उससे बड़ी थी लेकिन पहले टूट के बिखरी मैं
साहिल-साहिल ज़ज़्बे थे और दरिया-दरिया पहुंची मैं
उसकी हथेली के दामन में सारे मौसम सिमटे थे
उसके हाथ में जागी मैं और उसके हाथ से उजली मैं
एक मुट्ठी तारीक़ी में था, एक मुट्ठी से बढ़कर प्यार
लम्स के जुगनू पल्लू बांधे ज़ीना-ज़ीना उतरी मैं
उसके आँगन मैं खुलता था शहरे-मुराद का दरवाज़ा
कुएँ के पास से ख़ाली गागर हाथ में लोकर पलटी मैं
मैंनें जो सोचा यूं, तो उसने भी वही सोचा था
दिन निकला तो वो भी नहीं था और मौज़ूद नहीं थी मैं
लम्हा-लम्हा जां पिघलेगी, क़तरा-क़तरा शब होगी
अपने हाथ लरजते देखे, अपने आप ही संभली मैं
-किश्वर नाहिद
जन्मः 1940, बुलन्द शहर (उ.प्र.)
साहिल-साहिल ज़ज़्बे थे और दरिया-दरिया पहुंची मैं
उसकी हथेली के दामन में सारे मौसम सिमटे थे
उसके हाथ में जागी मैं और उसके हाथ से उजली मैं
एक मुट्ठी तारीक़ी में था, एक मुट्ठी से बढ़कर प्यार
लम्स के जुगनू पल्लू बांधे ज़ीना-ज़ीना उतरी मैं
उसके आँगन मैं खुलता था शहरे-मुराद का दरवाज़ा
कुएँ के पास से ख़ाली गागर हाथ में लोकर पलटी मैं
मैंनें जो सोचा यूं, तो उसने भी वही सोचा था
दिन निकला तो वो भी नहीं था और मौज़ूद नहीं थी मैं
लम्हा-लम्हा जां पिघलेगी, क़तरा-क़तरा शब होगी
अपने हाथ लरजते देखे, अपने आप ही संभली मैं
-किश्वर नाहिद
जन्मः 1940, बुलन्द शहर (उ.प्र.)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (14-12-2013) "नीड़ का पंथ दिखाएँ" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1461 पर होगी.
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!