
मेरे हालात को मुझसे, पहले समझ जाती है
माँ अब कुछ नहीं कहती, चुप रह जाती है।
तब भी मुस्कराती थी, अब भी मुस्कराती है
माँ चुप रहकर भी, बहुत कुछ कह जाती है।
एक वक्त था जब सब, माँ ही तय करती थी
अब क्या तय करना है, तय नहीं कर पाती है।
तसल्लियों की खूंटी पर, टांग देती है ज़रूरतें
मेरी मुश्किलात माँ, पहले ही समझ जाती है।
जिसे दुश्वारियों के, तूफ़ान भी ना हिला पाये हों
वो अपने बच्चे के, दो आँसुओं में बह जाती है।
मेरी माँ कभी मेरी, जेबें खाली नहीं छोड़ती
पहले पैसे भरती थी, अब दुआयें भर जाती है।
तसल्लियों की खूंटी पर, टांग देती है ज़रूरतें
ReplyDeleteमेरी मुश्किलात माँ, पहले ही समझ जाती है।....मन की बात!
बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना।माँ शब्द ही इतना स्नेहमयी है कि
ReplyDeleteमन एक चिरपरिचित प्रेम से भीग जाता है।
वाहःह खूब
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आदरणीया आपका। सभी गुणीजनों का बहुत बहुत शुक्रिया।
ReplyDeleteवाह।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ....,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (17-10-2017) को भावानुवाद (पाब्लो नेरुदा की नोबल प्राइज प्राप्त कविता); चर्चा मंच 2760 पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना
पहले पैसे भरती थी,अब दुआएं भर जाती है...
लाजवाब....