
मेरी उजरत कम, तेरी ज़रूरत ज्यादा है
ऐ ज़िंदगी कुछ तो बता, तेरा क्या इरादा है।
दांव पर ईमान लगाकर, तरक़्क़ी कर लेना
आज के दौर का, फ़लसफ़ा सीधा सादा है।
हड़बड़ी में दिख रहा, ख्वाहिशों का समंदर
लहरों में उफान है, आसमां पे चाँद आधा है।
ऐ जम्हूरियत तू भी, अब पहले जैसी नहीं रही
आजकल मुल्क में काम कम, शोर ज्यादा है।
बहुत हुई बारूदों की ज़िद, ये तमंचों की होड़
ख़ुदा ख़ैर करे, अभी क्या कम खून ख़राबा है।
नूर की ख़ातिर सितारे को, इतना ना निचोड़ो
सीधा चाँद को थामो, ये तो उसका एक प्यादा है।
सटीक रचना....
ReplyDeleteवाह्ह्ह...लाज़वाब गज़ल👌👌
ReplyDeleteबहुत उम्दा।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (13-10-2017) को
ReplyDelete"कागज़ की नाव" (चर्चा अंक 2756)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteवाह।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार मेरी रचना को मान देने के लिये। सभी गुणीजनों का आशीर्वचनों के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब...
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