हर जनम में उसी की चाहत थे;
हम किसी और की अमानत थे;
उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई;
हम ग़ज़ल की कोई अलामत थे;
तेरी चादर में तन समेट लिया;
हम कहाँ के दराज़क़ामत थे;
जैसे जंगल में आग लग जाये;
हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे;
पास रहकर भी दूर-दूर रहे;
हम नये दौर की मोहब्बत थे;
इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया;
ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे
दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना;
ये दिये रात की ज़रूरत थे।
-बशीर बद्र
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (22-10-2017) को
ReplyDelete"एक दिया लड़ता रहा" (चर्चा अंक 2765)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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दीपावली से जुड़े पंच पर्वों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह,सुन्दर
ReplyDeleteबशीर जी लाजवाब लिखते हैं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ११७ वीं जयंती पर अमर शहीद अशफाक उल्ला खाँ को ब्लॉग बुलेटिन का सलाम “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeletebahut sundar!
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