आओ उन्हें
मीठे सपने उधार दे दें,
जो अपनी ही आँखों में
गिर गए थे
बहुत दिन पहले।
आओ उन्हें
मुक्त करायें,
जो कुंठाओं में कैद
ग्रंथियों से घिरे,
अपना अस्तित्व
खोने ही वाले हैं।
आओ उन्हें
सुबह का
स्वप्न दें,
अदृश्य जिन्हें
अँधेरे में, जब वे
स्वप्निल लोक में खोए रहते
निगलना ही चाहता है।
-पुष्प राज चसवाल
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलमंगलवार (09-08-2016) को "फलवाला वृक्ष ही झुकता है" (चर्चा अंक-2429) पर भी होगी।
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मित्रतादिवस और नाग पञ्चमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अपने सिवाय किसी के लिए कुछ न कुछ करते रहना धर्म होना चाहिए हर इंसान का ...
ReplyDeleteप्रेरक कविता
सुन्दर ।
ReplyDeleteआओ उन्हें
ReplyDeleteसुबह का
स्वप्न दें,
अदृश्य जिन्हें
अँधेरे में, जब वे
स्वप्निल लोक में खोए रहते
निगलना ही चाहता है।
बहुत सही।
बढ़िया......
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